Rajiv Khandelwal Article : ‘‘वोट अगेंस्ट कैंसर’’। नोटा! ‘‘अर्पिहाय कितना’’?

Rajiv Khandelwal Article : ‘‘वोट अगेंस्ट कैंसर’’ को जन आंदोलन बनाकर अलख जलाने वाले हेमंत चंद्र दुबे को बैतूल शहर का बुद्धिजीवी वर्ग अच्छी तरह से जानता है। हेमंत चंद दुबे उर्फ बबलू दुबे शहर की वह शख्सियत है, अभी तक शहर के जितनी शख्सियत को मैंने देखा है, उन सबमें सबसे ज्यादा जीवटता लिये हुये जीवित व्यक्ति है। जब हम भुगतमान बबलू दुबे की गुजरी अपंगता पर नजर डालते है तो, यह जीवटता और बड़ी हो जाती है। लगता है ‘‘हरी दूब सी है जिजीविषा, जो फिर फिर उग आती है’’। एक विपरीत परिस्थितियों में जीवन को सहने वाला शारीरिक रूप से हड्डी के कैंसर से जूझता लड़ता व उस पर विजयी होकर सफल व्यक्ति के जीवन की तुलना एक सामान्य स्वस्थ व्यक्ति से करने में जमीन-आसमान का अंतर है।

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इसलिए मैंने कहा न कि उनकी जीवटता महान होकर महानता लिये हुए है, जो उम्र की सीमा से परे शहर के प्रत्येक नागरिक के लिए उत्पेरक होकर प्रेरणा स्त्रोत हैं।‘‘समझदारी उम्र की मोहताज नहीं होती’’।
बबलू दुबे की ‘‘आज की कसौटी उनका बीता हुआ अतीत है’’। हॉकी, कैंसर, स्वच्छता अभियान जैसे खिलाड़ी, बीमारी और जन सामान्य के महत्वपूर्ण मुद्दों को जनमानस के मन में भीतर तक उतारकर आद्वोलित करने का बीडा हेमंतचंद दुबे और उनकी ‘‘75 दिन 75 कदम’’ की टीम ने न केवल उठाया है, बल्कि अनवरत रूप से जमीन में उतारने का प्रयास बिना यह देखे कर रहे हैं कि उन्हे उक्त जन आंदोलन में कितनी सफलता मिल रही है। इसी को ‘‘एकलव्य की एकाग्रता’’ कहा जाता है। परन्तु एकलव्य के जमाने की एकाग्रता के परिणाम की तुलना वर्तमान जमाने से नहीं की जा सकती है।

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वर्तमान में व्यक्तिगत उद्देश्यों को लेकर एकाग्रता से प्रयास करने पर सफलता लाजमी होती है। परन्तु जब आप सामान्य जनों के हितों के लिए उनकी बुराइयों को सामाजिक रूप से मुद्दा बनाने के लिए ‘‘एकाग्रता’’ से कार्य करते हैं तब परिणाम एकलव्य समान आ जाये, यह जरूरी नहीं है। ‘‘यह अंधा युग है, जहां हीरे और कंकर का अंतर नहीं पता’’। ‘‘जीवटता’’ भी उसी को कहते है, जब आदमी परिणाम की चिंता आये बिना अपने उद्देश्य को लेकर समाज में रहने वाले इन अवरोधक तत्वों से भी संघर्ष करते हुए विचलित हुए बिना विचारों का संघर्ष करते हुए आगे बढता जाय। अर्थात ‘‘अच्छे के लिये कोशिश तो जी जान से करो लेकिन बुरे के लिये भी तैयारी रखो’’।

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इन पवित्र उद्देश्य को लेकर भाई बबलू दुबे द्वारा किये जा रहे अभियान के लिए साधुवाद

आज बबलू दूबे से इस संबंध में बात हुई। चूंकि बबलू दुबे ‘‘हड्डी कैंसर’’ की जानलेवा बीमारी को भुगत चुके हैं, परन्तु वे शराबखोरी व नशाखोरी से एकदम दूर रहे हैं। अतः वे उसकी भयानकता को उस सीमा तक शायद नहीं जानते है, जिस सीमा तक कैंसर की भयावहता। अतः उनका कैंसर के खिलाफ अभियान छेड़ना स्वाभाविक ही है।

मेरे मन में यह विचार आया कि बबलू दुबे एवं टीम के कैंसर के खिलाफ जन जागरण का अभियान सही होने के बावजूद बड़े जनमानस का ध्यान आर्कषित करनेे के लिए दूसरी और महत्वपूर्ण बात जिसे अभियान में प्रथम रूप में मुख्य मुद्दे के रूप में जोड़ा जाना चाहिए, वह है शराब और नशा करने वाले चीजे सिगरेट, बीड़ी जो कैंसर को उत्पादित (जनरेट) करने वाले तत्व हैं। अर्थात शराबखोरी व नशाखोरी के विरूद्ध अभियान चलाया जाना चाहिए। तभी सामाजिक स्तर पर लोग ज्यादा जुड़कर वह जन आंदोलन का रूप लेगा और तभी नोटा के उपयोग के अभियान को गति मिल पायेगी।

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स्वच्छ शहर सिर्फ नारा

‘‘गंगा की राह किसने खोदी है भला’’? तब ‘‘मेरा शहर स्वच्छ शहर’’ मेरा शहर स्वस्थ शहर सिर्फ नारा ही नहीं रहेगा, बल्कि वह सपना भी पूरा हो पायेगा। अंततः कैंसर एक व्यक्तिगत बीमारी है, जबकि शराबखोरी या नशाखोरी व्यक्तिगत उपभोग होने के बावजूद वह व्यक्तिगत बीमारी न रहकर सामाजिक बुराई के रूप में स्थापित हो गई है। इसलिए यदि समाज को जाग्रत करना चाहते हैं, लड़ना चाहते है तो व्यक्तिगत कमियो की बजाय हमें ‘‘सामाजिक बुराईयों’’ से लडना होगा, तभी कैंसर से भी सफलतापूर्वक निपटा जा सकेगा, ऐसा मेरा मानना है।

परन्तु बड़ा प्रश्न यहां यह उत्पन्न होता है कि इसके लिए क्या ‘‘नोटा’’ का प्रयोग ही अंतिम अस्त्र जनमानस को जगाने के लिए रह गया है? मुझे लगता है, इस अंतिम हथियार अंतिम दशा में ही जब सब प्रयास असफल हो जावे, तब ही इसका उपयोग किया जाना चाहिए। ‘‘अगला पांव उठाइये देख धरन का ठौर’’। मुझे लगता है कि इस अंतिम हथियार का उपयोग करने के पूर्व जिले के जनप्रतिनिधियों और राजनीतिक पार्टियों, प्रबुद्ध वर्ग से संवाद स्थापित कर बबलू दुबे को उक्त मुहिम के लिए उनके विचार और उनकी सहमति बनाकर उनको सक्रिय रूप में शामिल करने का प्रयास अवश्य करना चाहिए। यदि कोई प्रयास किया गया होगा तो उसकी जानकारी मुझे नहीं है। और यदि वे सहमत नहीं होते है, तभी यह आखिरी कदम उठाया जाना चाहिए।

परन्तु प्रश्न तब फिर यह उत्पन्न होता है कि क्या वह आह्वान सफल होने पर वास्तविक रूप में परिणाम की दृष्टि से प्रभावी है?

सत्ता पक्ष या विपक्ष l (Rajiv Khandelwal Article)

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‘नोटा’’ व ‘‘वृद्धाश्रम’’ की ‘‘दशा’’ व ‘‘दिशा’’ एक सी ही है। दोनों ही व्यवस्था समाज की स्वस्थ्य व परिपक्व मानसिकता में कमी के कारण उसकी पूर्ति हेतु ही बनी स्थिति के कारण है। वृद्धाश्रम की आवश्यकता परिवार द्वारा दायित्वों को न निभाने के कारण उत्पन्न होती है। अतः जब समाज और परिवार अपना दायित्व पूर्ण रूप से निभाने में सक्षम होकर निभाने लग जाएगा, तब ‘‘वृद्धाश्रम की सोच’’ ही समाप्त हो जाएगी।

इसी प्रकार परिपक्व लोकतंत्र में जनता के पास दो विकल्प होते है सत्ता पक्ष व विपक्ष। कुछ विदेशों में तो विपक्ष भी छाया मंत्रिमंडल बनाकर जनता के बीच अपनी नीति को प्रभावी रूप से ले जाते हैं। परन्तु जहां लोकतंत्र परिपक्व नहीं होता है, तब पक्ष-विपक्ष दोनों के नाकाम व असफल सिद्ध हो जाने की स्थिति में तभी मजबूरी वश ‘‘नोटा’’ का प्रावधान कर प्रयोग किया जाता है। परन्तु नोटा का प्रयोग होने के बावजूद मतदाता अपने उद्देश्यों में वस्तुतः सफल नहीं हो पाता है। क्योंकि अंततः ‘‘शासक’’ तो दोनों पक्षों में से कोई एक ही बनता है, जिसे न चुनने के लिए नोटा का उपयोग किया गया था।

Rajiv Khandelwal Article

‘नोटा’ का बहुमत होने की स्थिति में भी लोकतांत्रिक व्यवस्था में उसे ‘‘शासन का अधिकार’’ नहीं मिल जाता है। अतः नोटा में वास्तविक परिणाम को लागू करने वाली शक्ति निहित न होने के कारण, जिस मुद्दे को लेकर नोटा का प्रयोग किया गया है, उसकी प्राप्ति न होने से नोटा का आह्वान करना, व्यावहारिक रूप से उद्देश्य की प्राप्ति के लिए कहीं उचित नहीं ठहरता है। अंततः तब लोकतांत्रिक देश में असहमति व्यक्त करने के लिए लोकतंत्र के परिपक्व होने पर अर्थात जन नेताओं के परिपक्व होने पर सामाजिक बुराइयों को दूर करने के लिए जन आवाह्न से सहमति बताने पर प्रावधित विकल्प ‘‘नोटा’’ के उपयोग की आवश्यकता ही नहीं पडे़गी। अतः बबलू दुबे को अपने पवित्र उद्देश्य की प्राप्ति हेतु ‘नोटा’ की बजाय कोई अन्य ज्यादा कारगर, परिणात्मक, परिणाम उन्मूलक तरीका अपनाने की आवश्यकता है।

अंत में मेरी नजर में बबलू दुबे को यह सुझाव है कि वेे इस उक्त मुद्दे को लेकर चलाए गए अभियान को ‘‘जनमत संग्रह’’ का नाम देवें और तब आगामी होने वाले विधानसभा के चुनाव में यदि दोनों पक्षों को मिले वोट से ज्यादा वोट ‘‘नोटा’’ पर पड़े, तब ही जनता की जीत होगी, अभियान की जीत होगी। तब ऐसी स्थिति में जो कोई भी जनप्रतिनिधि चुना जायेगा तो उस पर भी सिर्फ नैतिक दबाव ही नहीं बल्कि ‘‘जन मानस का दबाव’’ भी होगा जो लोकतंत्र की वास्तविक शक्ति है व नोटा एक सफल अस्त्र के रूप में सिद्ध भी होगा। हां इसके पूर्व यदि कोई पार्टी इस अभियान के पक्ष में ताकत से उतरती है, तो निश्चित रूप से ‘‘नोटा’’ की बजाय उस पार्टी के पक्ष में वोट देने की अपील करनी होगी।

राजीव खंडेलवाल (Rajiv Khandelwal Article)    (लेखक वरिष्ठ कर सलाहकार एवं पूर्व सुधार न्यास अध्यक्ष)  Email:[email protected]

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