RADHARANI KI STORY: क्या आप जानते हैं राधारानी और गौलोक के बिच क्या रिस्ता हैं।
RADHARANI KI STORY IN HINDI :- जब श्रीदामा जी को श्राप लगा तो भगवान कृष्ण श्रीदामा जी से बोले- कि तुम एक अंश से असुर होगे और वैवत्सर मनमंतर में द्वापर में अवतार लूगाँ और मै गोपियों के साथ रास करूगाँ, तो तुम अवहेलना करोगे, तो मै वध करूगाँ। इस प्रकार श्री दामा जी यक्ष के यहाँ शंखचूड़ नाम के दैत्य हो गए और कुबेर के सेवक हो गए।
शंखचूड़ का वध और मुक्ति
जब द्वापर में भगवान ने अवतार लिए ब्रज की लीलाओं में भगवान ने रासलीला की तो यही शंखचूड़ नामक दैत्य जो कंस का मित्र था, उस समय वह कंस से मिलकर लौट रहा था, बीच में रास मंडल देखा और राधा कृष्ण की अलौकिक शोभा को देखने लगा वहा की शोभा इस प्रकार थी। गोपियाँ चवर डूला रही है। भगवान के एक हाथ में बंशी है। सिर पर मोर मुकुट है। गले में मणी है, पैरों में नुपर है।
गोपियों को हरने की कोशिश
उसी समय ये शंखचूड़ ने गोपियों को हरने की सोची उसका मुख बाघ के समान है, शरीर से काला है। उसे देखकर गोपियाँ भागने लगी, तो उनमे से एक गोपी शतचंद्र्नना को उसने पकड़ा और पूर्व दिशा में ले जाने लगा, गोपी कृष्ण-कृष्ण पुकारने लगी। तो भगवान कृष्ण भी शाल का वृक्ष हाथ में लेकर उसकी ओर दौड़े । अब डर से उसने गोपी को तो छोड़ दिया और भगवान को आते देख अपने प्राण बचाने के लिए भागने लगा और हिमालय की घाटी पर पहुँच गया तो भगवान ने एक ही मुक्के में उसमें सिर को तोड दिया और उसकी चूडामणी निकाल ली।
श्री दामाजी में समाना
शंखचूड़ के शरीर से एक दिव्य ज्योति निकली और भगवान के सखा श्रीदामा जी में विलीन हो गई तो शंखचूर्ण का वध करके भगवान ब्रज में आ गए। ये राक्षस श्रीदामा जी के अंश् था इसलिए शंखचूड़ की आत्मज्योति निकलकर श्री दामा में ही समां गई और जो श्राप श्री राधा रानी जी ने श्री दामा जी को दिया था वह तो पूर्ण हो गया
राधा रानी को मिला श्राप | RADHARANI KI STORY IN HINDI
अब जो श्राप राधा रानी जो को श्री दामा जी ने दिया था उसका समय भी निकट आ गया था और श्राप वश राधाजी को सौ वर्ष का विरह हुआ। भगवान ने कहा कि:- मै अपने भक्त का संकल्प कभी नहीं छोड सकता है इसलिए राधा जी को तो वियोग होना ही है। फिर जब भगवान मथुरा चले गए तो वो लौट के नहीं आए सौ वर्ष बाद कुरूक्षेत्र में सारे गोप ग्वालों की भगवान से भेंट हुई और राधा जी से भी मिले।
गौलोक धाम का प्राकट्य
सबसे पहले विशालकाय शेषनाग का प्रादुर्भाव हुआ, जो कमलनाल के समान श्वेतवर्ण के है और उन्ही की गोद में लोकवंदित महालोक “गोलोक” प्रकट हुआ। जिसे पाकर भक्ति युक्त पुरुष फिर इस संसार में नहीं लौटता। फिर असंख्य ब्रह्माण्डो के अधिपति गोलोक नाथ भगवान श्रीकृष्ण के चरणारविन्द से “त्रिपथा गंगा” प्रकट हुई। जब भगवान से ब्रह्माजी प्रकट हुए, तब उनसे देवर्षि नारद का प्राकट्य हुआ। वे भक्ति से उन्मत होकर भूमंडल पर भ्रमण करते हुए भगवान के नाम पदों का कीर्तन करने लगे।
ब्रह्माजी और नारदजी संवाद | Brahmaji and Naradji dialogue IN
ब्रह्माजी ने कहा – नारद ! क्यों व्यर्थ में घूमते फिरते हो ? प्रजा की सृष्टि करो।
इस पर नारद जी बोले – मै सृष्टि नहीं करूँगा, क्योकि वह “शोक और मोह” पैदा करने वाली है बल्कि मै तो कहता हूँ आप भी इस सृष्टि के व्यापार में लगकर दुःख से अत्यंत आतुर रहते है, अतः आप भी इस सृष्टि को बनाना छोड़ दीजिये। इतना सुनते ही ब्रह्मा जी को क्रोध आ गया और उन्होंने नारद जी को श्राप दे दिया। ब्रह्मा जी बोले - हे दुर्मति नारद तु एक कल्प तक गाने-बजाने में लगे रहने वाले गन्धर्व हो जाओ। नारद जी गन्धर्व हो गए,और गन्धर्वराज के रूप में प्रतिष्ठित हो गए।
दासी पुत्र नारदजी
स्त्रियों से घिरे हुए एक दिन ब्रह्मा जी के सामने वे (गन्धर्वराज) सुर गाने लगे, सुर पसंद नहीं आने पर फिर ब्रह्मा जी ने श्राप दिया तू शूद्र हो जा और दासी के घर पैदा होगा और इस तरह नारदजी दासी के पुत्र हुए और सत्संग के प्रभाव से उस देह हो छोड़कर फिर से ब्रह्मा जी के पुत्र के रूप में प्रकट हुए। फिर भूतल पर विचरण करते हुए वे भगवान के पदों का गान व कीर्तन करने लगे।
नारदजी पृथ्वी लोक में | RADHARANI KI STORY
एक दिन विभिन्न लोको का दर्शन करते हुए “वेद-नगर” में गए, नारद जी ने देखा वहाँ सभी अपंग है। किसी के हाथ नहीं किसी के पैर नहीं, कोई कुबड़ा है, किसी के दाँत नहीं है,नारदजी को बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने पूँछा – बड़ी विचित्र बात है ! यहाँ सभी बड़े विचित्र दिखायी पड़ते है? इस पर वे सब बोले – हम सब “राग-रगनियाँ” है और नारदजी ब्रह्मा जी के पुत्र है - वह (नारदजी ) बे समय ध्रुपद गाता हुआ इस पृथ्वी पर विचरता है इसलिए हम सब अपंग हो गए है, (जब कोई गलत राग,पद गाता है तो मानो राग रागनियो के अंग-भंग हो जाते है) नारद जी बोले – मुझे शीघ्र बताओ ! नारद को किस प्रकार काल और ताल का ज्ञान होगा? राग-रागनियाँ – यदि सरस्वती शिक्षा दे, तो सही समय आने पर उन्हें ताल का ज्ञान हो सकता है। नारद जी ने सौ वर्षों तक तप किया और तब सरस्वती प्रकट हुई और संगीत की शिक्षा दी, नारद जी को ज्ञान होने पर विचार करने लगे की इसका उपदेश किसे देना चाहिये? तब तुम्बुरु को शिष्य बनाया, दूसरी बात मन में उठी, कि किन लोगो के सामने इस मनोहर राग रूप गीत का गान करना चाहिये?
ब्रह्म-द्रव्य ( गंगा ) की उत्पत्ति
खोजते-खोजते इंद्र के पास गए, इंद्र तो विलास में डूबे हुए थे, उन्होंने ध्यान नहीं दिया, शंकरजी के पास गए,वे नेत्र बंद किये ध्यान में डूबे हुए थे तब अंत में नारदजी “गोलोक धाम” में गए, जब भगवान श्रीकृष्ण के सामने उन्होंने स्तुति करके भगवान के गुणों का गान करने लगे और वाद्य यंत्रो को दबाकर देवदत्त स्वरामृतमयी वीणा झंकृत की,तब भगवान बड़े प्रसन्न हुए और अंत में प्रेम के वशीभूत हो, अपने आपको देकर भगवान जल रूप हो गए। भगवान के शरीर से जो जल प्रकट हुआ उसे “ब्रह्म-द्रव्य” के नाम से जानते है।
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उसके भीतर कोटि-कोटि ब्रह्माण्ड राशियाँ लुढकती है, जिस ब्रह्माण्ड में सभी रहते है, उसे “पृश्निगर्भ” नाम से प्रसिद्ध है जो वामन भगवान के पाद-घात से फूट गया। उसका भेदन करके जो ब्रह्म-द्रव्य का जल आया, उसे ही हम सब गंगा के नाम से जानते है, गंगा जी को धुलोक में “मन्दाकिनी ,पृथ्वी पर “भागीरथी”,और अधोलोक पाताल में “भोगवर्ती” कहते है। इस प्रकार एक ही गंगा को त्रिपथ गामिनी होकर तीन नामो से विख्यात हुई। इसमें स्नान करने के लिए प्रणत-भाव से जाते हुए मनुष्य के लिए पग-पग पर राजसूर्य और अश्वमेघ यज्ञो का फल दुर्लभ नहीं रह जाता।
भगवान से प्राकट्य स्वरूप
- फिर भगवान के “बाये कंधे”से सरिताओ में श्रेष्ठ – “यमुना जी” प्रकट हुई,
- भगवान के दोनों “गुल्फो से ”दिव्य “रासमंडल”और “दिव्य श्रृंगार”साधनों के समूह का प्रादुर्भाव हुआ।
- भगवान की “पिंडली”से “निकुंज” प्रकट हुआ। जो सभा, भवनों, आंगनो गलियों और मंडलों से घिरा हुआ था।
- “घुटनों” से सम्पूर्ण वनों में उत्तम “श्रीवृंदावन” का आविर्भाव हुआ।
- जंघाओं से “लीला-सरोवर” प्रकट हुआ।
- “कटि प्रदेश”से दिव्य रत्नों द्वारा जड़ित प्रभामायी “स्वर्ण भूमि”का प्राकट्य हुआ।
- उनके “उदर” में जो रोमावालिया है, वे विस्तृत “माधवी लताएँ” बन गई। गले की “हसुली” से “मथुरा-द्वारका” इन दो पूरियो का प्रादुर्भाव हुआ, दोनों “भुजाओ” से “श्रीदामा” आदि।
- आठ श्रीहरि के “पार्षद” उत्पन्न हुए। “कलाईयों से “नन्द”और “कराग्र-भाग” से “उपनंद” प्रकट हुए।
- भुजाओ” के मूल भागो से “वृषभानुओं” का प्रादुर्भाव हुआ।
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समस्त गोपगण श्रीकृष्ण के “रोम” से उत्पन्न हुए। भगवान के “बाये कंधे” से एक परम कान्तिमान गौर तेज प्रकट हुआ, जिससे “श्री भूदेवी” ”विरजा” और अन्यान्य “हरिप्रियाये” आविभूर्त हुई। फिर उन श्रीराधा रानीजी के दोनों भुजाओ से “विशाखा” “ललिता” इन दो सखियों का आविभार्व हुआ,और दूसरी सहचरी गोपियाँ है वे सब राधा के रोम से प्रकट हुई, इस प्रकार मधुसूदन ने गोलोक की रचना की।
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