PARSHURAM JANMOTSAV SPECIAL:भगवान परशुराम ने फरसे से संहार ही नही सृजन भी किया है
PARSHURAM JANMOTSAV SPECIAL BLOG :- इतिहास के पलट चुके पन्नो में प्राचीन वीर महानायकों द्वारा की गई हिंसक घटनाओं के वर्णन तो बहुतायत मिल जाते है, लेकिन उनके हेतु तथा उपरांत में किये गए उन महान कार्यों व विचारों को उस स्तर पर नही दर्शाया जाता, जहाँ से वह पूर्व में घटित घटना की प्रतिपूर्ति करते हुए साम्य स्थापित करले। हमारे कुछ एक संक्षिप्त धर्म साहित्य व भगवत कथावाचक भी आधे-अधूरे प्रसंगों की ही कहानियां बताते है।
जिससे निश्चित ही भ्रांतियां फैलती है और साथ ही सामाजिक सुधार की नई क्रांतियां सदा के लिए नजरअंदाज कर दी जाती है। ऐसी ही भ्रान्ति भगवान परशुराम के बारे में भी जग विख्यात है कि उन्होंने फरसे से क्षत्रियों के कुल के कुल संहार दिए थे। जबकि फरसे से संहार ही नही सर्जन भी किया है भगवान परशुराम ने।
“भूयश्च जामदग्न्योऽयम् प्रादुर्भावो महात्मन”
हरिवंश पर्व में उल्लेखित उक्त पंक्ति दर्शाती है कि सनातनी वैदिक पुराणों में भगवान परशुराम, श्री हरि विष्णु का छठा अवतार है। ब्राह्मण ऋषि जमदग्नि व माता रेणुका के पुत्र परशुराम ने अधर्म के विध्वंस तथा धर्म के पुनर्स्थापन के लिए भगवान शिव की उपासना से फरसे को प्राप्त कर धारण किया, पश्चात एकांत में पुनः तपस्या लीन हो गए।
कठोर पुत्र के रूप में प्रसंग सुनाये जा रहे
शस्त्र व शास्त्र की शक्ति से संपन्न व अतुल्य पराक्रमी होने से उनके स्वाभाविक क्रोध-आक्रोश और पिता की हत्या के बदले “पृथ्वी को इक्कीस बार क्षत्रियविहीन” करने की आरोपित घटना का खूब प्रचार प्रसार किया जाता रहा है। पिता की आज्ञानुसार अपनी माता का सिर काटने की घटना को भी एक पितृ आज्ञाकारी कठोर पुत्र के रूप में रोचक प्रेरक प्रसंग बनाकर सुनाया जाता रहा है।
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बस फिर यही से एक बात मन को कसोटती है कि क्यों किसी लोकनायक का केवल हिंसक व मार काट से भरा ही रूप दर्शाया जाता रहा है? क्यों उनकी क्रांति को क्रोध का नकारात्मक परिचायक सिद्ध किया गया? क्या हैह्यव सहस्त्रबाहु की भुजाएं काट देने से क्षत्रियों के शौर्य में कमी हो गयी? इन्ही भ्रांतियों के निरंतर सिंचन ने पारस्परिक वैमनस्य के बीज बो दिए।
क्षत्रियों के शुभचिंतक थे ?
परशुराम के समकालीन रामायण और महाभारत काल में संपूर्ण पृथ्वी पर क्षत्रियों का ही राज था, वे ही अधिपति थे। रघुवंशी मर्यादा पुरुषोत्तम राम को वैष्णवी धनुष देने वाले, कौरव नरेश धृतराष्ट को पाण्डवों से संधि सलाह देने वाले और सूत-पुत्र कर्ण को ब्रह्मास्त्र की दीक्षा देने वाले परशुराम ही थे। ये सब क्षत्रिय थे, अतः “परशुराम क्षत्रियों (PARSHURAM JANMOTSAV SPECIAL) के शत्रु नहीं शुभचिंतक थे”। परंतु हाँ, परशुराम केवल आततायी क्षत्रियों के प्रबल विरोधी थे। भगवान परशुराम ने पृथ्वी को क्षत्रियविहीन नही वरन एक भूभाग के 21 क्षत्रिय राजाओं को “क्षत्र-विहीन” किया था, अर्थात उन्हें सत्ता से बेदखल किया था।
सत्ता को ठुकरा दिया : PARSHURAM JANMOTSAV
युद्ध मे जीत के बाद भी भगवान परशुराम ने सत्ता को स्वीकार नही किया। सत्ता के बाह्य “सूत्रधार” होकर भारत के ज्यादातर गांव इन्होंने ही बसाये, तथा “वास्तविक समाज सुधारक” बनकर उन्होंने समाजिक उत्पीड़न झेल रहे पिछड़े, वंचित और विधवा महिलाओं को मुख्यधारा में लाने का उत्कृष्ट कार्य किया। परशुराम ने शूद्र माने जाने वाले दरिद्र नारायणों को शिक्षित व दीक्षित कर उन्हें ब्राह्मण बनाया, यज्ञोपवीत कराया। उस समय जो दुराचारी व आचरणहीन ब्राह्मण थे, उनका सामाजिक बहिष्कार किया। परशुराम और सहस्त्रबाहू अर्जुन के बीच हुए युद्ध में विधवा हुई महिलाओं के सामूहिक पुनर्विवाह करवाये।
परशुराम जी पहले कावड़ यात्री
हिमालय में फूलों की घाटी “मुनस्यारी” को बसाने का श्रेय भी परशुराम जी को है। हिंदू धर्म में अत्यंत पवित्र और शुभ मानी जाने वाली श्रावणी कांवड़ यात्रा का शुभारंभ परशुराम जी ने सबसे पहले शिवजी को कांवड़ से जल चढ़ाकर किया था। सबसे महत्वपूर्ण “अंत्योदय” की बुनियाद परशुराम जी ने ही डाली थी। अपनी कर्मभूमि गोमांतक जिसे आज गोआ कहा जाता है, में परशुराम जी ने जनता को रोजगार से जोडने में अंहम भूमिका निभाई।
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एक ओर केरल, कच्छ, कोंकण और मलबार क्षेत्रों में जहां परशुराम ने समुद्र में डूबी खेती योग्य भूमि को फरसे के प्रहार से निकाल कर फसल युक्त किया, वहीं फरसे के उपयोग से वन-कानन का संवर्धन कर भूमि को कृषि योग्य बनाया। उपजाऊ भूमि (PARSHURAM JANMOTSAV SPECIAL) तैयार करके धान की पैदावार शुरु कराईं। परशुराम ने इसी क्षेत्र में परशु का उपयोग सर्जनात्मक काम के लिए किया। इसी कारण भगवान परशुराम की सर्वाधिक प्रतिमा व मन्दिर इन्ही क्षेत्रों में स्थापित है।
भगवान का अवतार मानवजाति के कल्याण के लिए
धार्मिक मान्यतानुसार भगवत अवतार किसी एक वर्ग के लिए नही अपितु समस्त मानवजाति के कल्याण के निहित होता है, अतः उन्हें एक विशेष वर्ग का मानकर, उनके अपूर्ण प्रसंगों व आख्यानकों से भ्रांतियां ही व्याप्त होती है। जिन्हें दूर करने हेतु सही रेखांकन आवश्यक है। जिस प्रकार रात के बाद सवेरा, टकराव के बाद लगाव, युद्ध के बाद शांति, मृत्यु के बाद जन्म, निराशा के बाद आशा निश्चित है उसी प्रकार संहार के बाद सृजन भी…✒️ ओम द्विवेदी
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